खुद का खुद से राबता बनाकर
रुह का तेरा हिस्सा बनकर
तुझ को मुकम्मल कर
तुझ में बस्ती है वो,
तेरे ख्यालों की गहराईयों में
तेरे लफ्जों की खलिश में
उन करकश पन्नों की
तेरी लिखीं किताबों में
तेरे अल्फाज़ बनकर
तुझ में महकती है वो,
तेरी नियामत हाथों की लकीरों में
तेरे साये तले उन पनाहो में
उन राहगीरों की दुआओं में
उस जिंदादिली में बस कर
तुझ में झलकती है वो,
तेरे आसमान छूते अरमानों में
हासिल होते हर मुकामों में
उन होसलों की जंग में
जिंदगी के मुश्किल महकमों में
रात के साये में, तारों की आगोश लिये
तुझे समेटती है वो,
तेरी आवाज़ कि कशीश में
उन सच्ची वफाओं में
तेरी बेइंतहा उल्फ़त में
अफसानों का आईना बनकर
तुझमें निखरती है वो,
तेरी कायनात को समेटती
उन आँखों में,
तेरी जिदंगी को जितती
उन चंद सासों में,
तेरा आलम थामें खड़ी है वो,
जहन में शामिल
तुझ में बस्ती है तेरी माँ।
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