उस राह कि तरफ ये रूख कैसा
जिस राह कि मन्जर में हो,
फर्क ऐसा,
जो ना तेरा मुकाम है, ना मेरा
उस ख्वाहिश से यह मोह कैसा?
तेरे आँसुओं को जहाँ पनाह ना मिले
आंखों की जुबान बयान ना हो
मुस्कुराहट के जख्मों का मरहम ना हो
उससे यह मोह कैसा?
जो तेरे छुपे अहसासों को आहट ना दे
आवाज की कशीश को जो पहचान ना सके,
बदल ना सके हवाओं का रूख
यह मोह कैसा?
जो तेरी गुहार को अनजाम ना दे
हाथ की लकीरों को थाम ना ले,
संगदिल, जो तुझे इख्तियार ना सके
फिर भी ये मोह कैसा?
तू अब भी करता है
खुद को उसमें हासिल,
जिसकी रूह से हो तेरी रूह का रिश्ता,
उस सच्ची राह-ए- उल्फ़त से
ये मोह कैसा।