बह कर चलना
चल कर बहना,
लहरों का कोई मुकाम नहीं
देता उनकी मुन्तजि़र ख्वाहिशों को
कोई मुकम्मल अनजा़म नहीं,
दूर कहीं
कामिल करता
शायद
बसता एक साहिल यकी़न...
चाह रखती उन उचाईयों की
पर थमने के लिये
तलाशती
ठहरे हुए उस
साहिल की,
ठहरा हुआ एक साहिल
जो
लहरों की सिमटती हुई आहटों को ,
कभी धिमी
कभी तेज़ रफ्तारों को,
आबशार सी बहती मौजों को ,
लम्बे सफ़र की उस आस को,
बूंदों की नज्म़ से पिरोये उन अफ़सानों को,
अपने आगो़श में समेटे
नवाजे़ पनाह
कामरान दुआओं जैसी।
साहिल वही
लहरों को जो समेटे हुए,
राह दे
फिर से बढ़ने की,
चाह दे
दूर एक कश्ती की,
उन आसमां छूते
नफी़स अरमानों की,
कवायद
चांद के नूर में निखरने की..
लेकिन
साहिल करता यू बया़न
" बहना ही तेरी फि़तरत है
बहना ही तेरी तिलावत,
तू जमीन की है ही नहीं
रुक के भी ना थमती कहीं,
आशियाना नहीं मैं तेरा,
फिजा़ संग तू है लहरायी,
कहाँ लिखा है
तेरा मुझ में फ़नाह होना,
ब़हर में तू यूं है समायी "
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